Wednesday, April 25, 2012

त्रिवेणी - १

आकाशात आणि मनात
एकाच वेळी मळभ कसं दाटून येतं?
आकाशालाही कुणाची तरी आठवण छळते वाटतं!

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रोज तर तुझ्याशी बोलणं होतं
फक्त अमावस्या सोडून....
वेडा चंद्रच त्या रात्री उगवत नाही!

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स्वतःची तारीफ स्वतःच करते आता
पण आरशासमोर यायचं टाळते
मेला आरसा खोटं का बोलत नाही?

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जमतील तितके कढ रिचवले
पण एका नाजुक क्षणी बांध फुटलाच!
काठोकाठ भरलेली कळशी नेहमीच थोड्याश्याही धक्क्याने हिंदकळते!

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--शुभा मोडक (११-एप्रिल-१२)

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