Thursday, March 29, 2012

कम्बख्त़


रोज़ तो उनसे बात होती है
बस एक अमावस की रात छोडके
कम्बख्त़ चाँद जो उस रात निकलताही नही|

मरहम लगाते फिरते है
रोज़ दुसरोंके जख़मोंपर
कम्बख्त़ अपनाही जख़म है जो भरताही नही|

खुदकी तारीफ़ खुदही कर लेते है
मगर आईने के सामने आते नही
कम्बख्त़ शीशा कभी झूठ बोलताही नही|

मंझि़लें कब की अलग हो गई
राहें भी हो गई कब की जुदा
कम्बख्त़ दिल है के मुडताही नही|

तय करते है रोज़
आज से ना चाहेंगे तुम्हे
कम्बख्त़ प्यार है जो कम होताही नही|
                
--शुभा मोडक (२८-मार्च-२०१२)

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